नई दिल्ली (ईएमएस)। उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा ने कहा कि जो कानून केवल लिंग के आधार व्यक्तियों के बीच भेदभाव करता है और महिलाओं को मुकदमा दायर करने के अधिकार से वंचित करता है, वह लैंगिक रुप से तटस्थ नहीं है और खारिज कर दिये जाने लायक है। न्यायमूर्ति मल्होत्रा उस पांच सदस्यीय संविधान पीठ में एक मात्रा महिला न्यायाधीश थीं जिसने व्यभिचार के अपराध से संबद्ध भादसं की धारा ४९७ को सर्वसम्मति से असंवैधानिक करार देकर खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा, ‘वह समय काफी पहले बीत गया जब पत्नियां कानून के लिए अदृश्य थीं और वे अपने पतियों की छाया में रहती थीं।’ उन्होंने कहा कि कोई ऐसा कानून, जो संबंधों में ऐसी रुढि को निरंतरता प्रदान करता हो और भेदभाव को संस्थागत रूप देता है, संविधान के तृतीय भाग में गांरटीड मौलिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है। इसलिए भादसं की धारा ४९७, जिसे १८६० में बनाया गया था, के कानून की पुस्तक में बने रहने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। भारतीय दंड संहिता की धारा ४९७ कहती है, ‘जो कोई व्यक्ति ऐसी महिला के साथ जो किसी अन्य पुरूष की पत्नी है और जिसका किसी अन्य पुरूष की पत्नी होने की उसे जानकारी है, या उसके अन्य की पत्नी होने का विश्वास करने का समुचित कारण है, उस अन्य पुरुष की सहमति या मौन अनुकूलता के बिना ऐसा मैथुन करता है जो बलात्कार की कोटि में नहीं आता, वह व्यभिचार का दोषी होगा। ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दंडनीय नहीं होगी। व्यभिचार के लिए दोषी व्यक्ति के लिए ५ साल की कैद या जुर्माने का या दोनों का प्रावधान था। बासठ पन्नों के अपने फैसले में न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा कि जब यह कानून १९८० में बना तब महिलाओं का अपने पतियों से स्वतंत्र रुप से कोई अधिकार नहीं था और उन्हें अपने पतियों की संपत्ति समझा जाता था।